Wednesday, July 16, 2008

जी रे जागि रे..दूब जॉस पनिपिये..

दिनेश काण्डपाल
आज सुबह सुबह मुझे बताया कि मेरी छोटी बहन (उमा) के घऱ से थाली आयी है, उसमें कुछ खाने का सामान था हम दोनों के घर आस पास हैं इसलिये खाने पीने की चीज़े आती जाती रहती हैं, लेकिन आज खास बात थी एक तो सामान बेहद सुबह आ गया था और दूसरा उसे हमारे जवाई देने आये थे जो आम तौर पर ऐसा नहीं करते। मैं चौंक गया। थोड़ी देर तक आइडिया लगाया आज खाना क्यूं आया होगा फिर अवचेतन मन ने कहा अरे कहीं आज हरेला तो नहीं..छोटे भाई से पूछा तो वो भी कन्फ्यूज़..लेकिन बारिश का ये मौसम और इस खास दिन की गन्ध ने विश्वास पुख्ता कर दिया कि आज हरेला है..खाने में पूरी थी, बेड़ू था, आलू के गुटके थे, और हलवा था। मेरे बेटे के लिये 51 रुपये भी थे। मुझे बड़ी वेदना सी हुयी, पिताजी पर गुस्सा आया कल ही तो उनसे 20 मिनट बात हुयी थी लेकिन उन्होंने भी नहीं
बताया..लेकिन हरेले की उमंग अनजाने ही मन पर छा चुकी थी..कल्पना ही कर सकता था हरेले की..लगभग 15 साल पहले घर पर हरेला मनाया था उसके बाद तो आज तक न बोया न काटा..आफिस आया तो हरेले की बधाई के कई मेल आ चुके थे..मन बड़ा खुश रहा दिन भर..पत्नी को भी अफसोस हुआ कि हमें वक्त पर पता नहीं चल पाया..खैर मैने तय किया है कि रात को आफिस से घर जाऊंगा तो पूरे रीति रिवाज़ से हरेले का त्यौहार मनेगा। पूरी, सब्ज़ी, बेड़ू, खीर और वो सब कुछ मेरे घर पर बनेगा जो सब जगह बनता है। इस बार का हरेला देर से सही..अगली बार पक्का करूंगा कि दस दिन पहले ही हरेला पता चल जाय...आपको हरेले की मुबारकबाद..